भगवान श्री कृष्णा के परम भक्त श्री हरिदास के नाम से लगभग हर कोई भली भाँति परिचित है। उनके मन में भक्ति भावना बचपन से ही थी। वे बेनोपाल जंगलों में अज्ञात कुटिया में निवास करते थे। वे पूरा दिन भक्ति साधना में लीन रहते थे, और प्रतिदिन तुलसी जी की सेवा एवं 3 लाख हरिनाम का जप किया करते थे। भोजन के लिए वह ब्राह्मणों के घर पर जाते थे।
श्री हरिदास जी भजन गायन में इतने निपूर्ण थे की उनके भजनों को सुनकर समस्त नर-नारी एव पशु पक्षी भी मंत्र मुग्द हो जाते थे। उनका यही निराला रूप जानकर उन्हे संकीर्तन आंदोलन का आचार्य बनाया गया।
उसी जंगल के निकट एक रामचंद्र खान नामक एक जमींदार रहता था उसे हरिदास जी की प्रतिष्ठा बिलकुल भी रास न आयी। उसने निश्चय किया की किसी भी तरह हरिदास जी को समाज की नजरो में नीचा दिखा दे। इसके लिए उसने श्री हरिदास जी में दोष ढूढ़ना शुरू कर दिया ,उसने इस काम के लिए अपने गुप्तचर भी रखे लेकिन वो हर तरह से विफल हुआ।
अंत में खीज कर उसने वैश्याओ का सहारा लिया। दूर देश से उनसे बहुत ही सुन्दर एव मनमोहक रूप वाली वैश्याओ को बुलाया, जिससे की वह हरिदास जी चरित्र भ्रष्ट कर सके। इस काम के लिए उसने उनमे से सबसे सुन्दर लक्षहीरा को इस काम से लिए चुना,और लक्षहीरा ने भी तीन ही दिन में श्री हरिदास जी के पतन का विश्वास दिलाया।
इसी योजना साथ वो निकली की जैसे ही वो श्री हरिदास जी को अपने माया जाल में फ़सायेगी वैसे ही जमींदार सभी नगर वासियो एवं गुप्तचरों के साथ वह पहुंचकर उन्हें रंगे हाथो पकड़ेगा और उन्हें सभी के सामने तृस्कृत कर और आचर्य पद से बेदख़ल कर देगा।
योजना के तहत वो सज धज कर वो कुटिया की तरफ निकल गयी। जैसे ही वह कुटिया के समीप पहुंची उसने देखा की बाहर तुलसी जी विराजमान है। उसने उन्हें प्रणाम किया और अन्दर प्रेवश कर गयी। श्री हरिदास जी आकर्षित करने के लिए उसने वो सभी कृत्य किये जिसे देखकर वे अपना सयम खो दे।
उसने बहुत मधुर स्वर में हरिदास जी से कहा की “आप बहुत सुन्दर है आपका यौवन रूप देख कर कोई भी आप पर मोहित हो जायेगा। मै भी आप पर मोहित हो गयी हूँ अगर अपने मेरा कहा नहीं मन तो मै अपने प्राण त्याग दूंगी।”
तब श्री हरिदास जी ने कहा “मैंने 3 लाख हरिनाम जप का व्रत शुरू किया है जैसे ही व्रत पूरा होगा मै आपकी इच्छा जरूर पूरी करूँगा”
वैश्या वही रुक गयी और व्रत पूरा होने का इंतजार करने लगी। और इधर हरिदास जी अपने जाप में मगन हो गए। देखते ही देखते सुबह हो गयी। और श्री हरिदास जी हरिनाम भक्ति में लीन रहे।
तब वो वैश्या वहां से चली गयी और जाकर रामचंद्र खान को पूरा व्यख्यान बताया और अगले दिन अपनी सफलता का विश्वास दिलाया।
अगले दिन फिर से रात्रि के समय वो श्री हरिदास जी की कुटिया की तरफ गयी, और पिछली बार की तरह उसने तुलसी जी को प्रणाम किया और अगर प्रेवश किया। उसे देखते ही हरिदास जी बोले “व्रत के कारण मैं कल आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाया था।
लेकिन आज व्रत पूरा होते ही अवश्य ही आपकी इच्छा पूरी होगी। ” इतना कहकर हरिदास जी हरिनाम जप में विलीन हो गए।
इस बार लक्षहीरा कुछ भी करके अपनी सफलता सुनिश्चित करना चाहती थी। इसीलिए उसने श्री हरिदास जी को आकर्षित करने के लिए उसने उनके सम्मुख ऋषि मुनियो का धैर्य तोड़ देने वाले स्त्री भाव प्रकट किये। लेकिन इसका कोई असर हरिदास जी पर नहीं पड़ा वो निरंतर हरिनाम जपते रहे। ऐसे ही असफल प्रयास करते करते पूरी रात्रि समाप्त होने लगी।
रात्रि समाप्त होते देख जब वह बहुत ही व्याकुल होने लगी तब हरिदास जी बोले “मैंने एक माह में एक करोड़ हरिनाम जप का व्रत लिया हुआ है वह बस समाप्त होने ही वाला है कल अवश्य ही व्रत समाप्त हो जायेगा तो कल आपकी सभी इच्छा पूरी होगी”
इतना सुनकर वह फिर से लॉट गयी और पूरा व्यख्यान रामचंद्र खान को सुनाया।
अब तीसरी रात्रि को फिर से वो कुटिया की ओर चल दी हर बार की तरह उसने तुलसी जी को प्रणाम किया अन्दर प्रेवश कर गयी। आज उसने कुछ भी प्रयास नहीं किया। वह आयी और फिर हरिदास जी के पास बैठ गयी और व्रत पूरा होने का इंतजार करने लगी।
लगातार तीन दिन तक हरिनाम सुनते सुनते उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया उनके मन का मैलापन दूर हो गया।
उसके मन पश्च्याताप की ज्वाला जाग गयी। जैसे ही सुबह हुई उस वैश्या ने हरिदास जी के चरणों में गिरकर छमा मांगी और उसका और उस जमींदार रामचन्द्र खान के उद्देश्य के बारे में बताया और बहुत लज्जित अनुभव करने लगी।
तब हरिदास जी बोले “मै उसी दिन ही यहाँ से प्रस्थान कर जाता जिस दिन आप यहाँ आयी थी लेकिन आपके उद्दार के लिए मैंने तीन दिन तक प्रतीक्षा की। ”
वैश्या ने बड़े ही दुःखी मन से फिर से अपने कृत्य के लिए छमा मांगी। और अपने कल्याण के लिए प्रार्थना की। तब हरिदास जी ने कहा
“इसका एक ही उपाय है की पाप की दुनिया को भूलकर नयी शुरुवात करो। तथा पाप द्वारा एकत्र की हुई समस्त सम्पदा को ब्रामणो को दान करके एक कुटिया में निवास करो और हरिनाम का जप करो एवं तुलसी जी की सेवा करो।”
हरिदास जी के कहे अनुसार उस वैश्या ने सारा धन ब्रामणो को दान दे दिया एवं खुद एक कुटिया में रहकर हरिनाम का जप करते हुए साधारण जीवन व्यतीत करने लगी।
श्री हरिदास जी की कृपा से वह कठिन साधना में लीन हो गयी और प्रतिदिन 3 लाख हरिनाम जपने लगी। इसी के फलस्वरूप इस संसार के मायाजाल और भोग विलास स्वाभाविक वैराग्य उत्पन्न हो गया। इतना ही नहीं परम अवतार श्री कृष्णा की अनुकम्पा से उसके हृदय में भगवत प्रेम उत्पन्न हो गया। और उसका उद्धार हुआ।
यहाँ तक चैतन्य महाप्रभु के जीवनचरित श्री चैतन्य चरितामृत में लिखा है। की लक्षहीरा नमक वैश्या एक ऐसी पुण्य आत्मा (परम वैष्णवी) बन गयी। की बड़े बड़े वैष्णव भी उनके दर्शन करने और उनसे हरिनाम के वक्यांश सुनने आया करते थे।
जय श्री कृष्णा राधे राधे