कैसे हुई विधवाओं की होली की शुरुवात-

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यूँ तो होली हर किसी के जीवन को रंगों से भर देने का नाम है, इस त्योहार की विशेषता ही रंग हैं, फिर भी समाज का एक वर्ग इससे वंचित रहता है सामाजिक रूढ़िवादिता और व्यावहारिक ज्ञान की कमी के चलते हमारा समाज विधवा वर्ग को खुद से अलग-थलग रखता है।
पति के ना रहने पर उनकी पत्नियों का जीवन दुष्कर हो जाता है, साज श्रृंगार सब कुछ मिथ्या हो जाता है। वैसे तो सामाजिक प्रतिबंध अब बहुत कम हो चुके हैं- जैसे पति की चिता के संग सती हो जाना, या फिर पति ना रहने पर पत्नी का सामाजिक बहिष्कार करना, उनके केश कटवा देना या उन्हे अच्छा सुस्वाद भोजन ना करने देना, घर से बाहर अलग रखना इत्यादि, परन्तु मानसिक अवसाद से उनको आज भी गुजरना ही पड़ता है, आज भी विधवाओं को लोग अशुभ मानते है, भाग्यवश् पति ना होने का दोष भी अकारण ही उनके सिर आता है, ऐसे में सारे रंग उनके जीवन से निकल जाते हैं और बचता है तो बस एक सफेद रंग।

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देश के कुछ हिस्सों मे आज भी ये कुरीतियाँ जीवित हैं। परन्तु वृंदावन एक ऐसी जगह है जहाँ विधवाओं के जीवन का एक आश्रय है। यह भगवान कृष्ण की लीलाभूमि है, यहाँ हर किसी के लिए प्रेम है करुणा है। यहाँ के विधवा आश्रम मे रहने वाली औरतें कृष्ण भक्ति में रम जाती हैं, उन्हीं के चरणों में रत रहकर जीवन को सफल बनाती हैं। वैसे तो यहाँ बड़े स्तर पर होली मनायी जाती है परंतु विधवा वर्ग फिर भी वंचित रहता था। परंतु सामाजिक बदलाव के चलते इस कुरीति को खत्म करने की पहल की गयी एक संस्था के द्वारा जिसका नाम है
“सुलभ इंटरनेशनल”। संस्था के संस्थापक सामाजिक कार्यकर्ता डॉ बिंदेश्वर् पाठक ने विधवाओं के दर्द को समझ कर उनको समाज मे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया उनको स्वावलंबी बनाया, उनको समाज से जुड़ने की प्रेरणा दी।

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सुलभ संस्था ने ही लगभग 3 साल पहले साल 2016 में विधवाओं के लिए होली की शुरुआत की। प्रसिद्ध गोपीनाथ मंदिर से इसका श्री गणेश हुआ।
सफेद रंग से हट कर कर विधवा औरतों ने भी रँगों का आनंद लिया। कान्हा के गीतों को गाते हुए बहुत सी विधवाओं ने अबीर गुलाल ,फूल ,रंग ,पिचकारी इन सबके संग होली खेली। कृष्ण प्रेम मे नाच गा कर इस त्योहार को मनाया। कान्हा जो कि सबके हैं उनके संग ये प्रेम और भक्ति में डूबी औरतें थोड़ी देर के लिए खुद को हर बंधन और दर्द से मुक्त महसूस करती हैं, हंसती मुस्कुराती खिलखिलाती जीवन को जीती सी दिखाई देती हैं।

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वृंदावन की होली वाक़ई जीवंत है और विधवाओं के संग खेली जाने वाली होली इस बात का प्रतीक है कि संसार से बना रिश्ता क्षणिक है परंतु ईश्वर से बना रिश्ता आजीवन है मृत्यु पर्यंत भी। और ये एक सामाजिक मिसाल भी है कि यदि कुछ गलत है तो उसे सही किया जा सकता है फिर चाहे वो प्रथा हो या परंपरा। 2016 से अब हर साल ये होली धूमधाम से गोपीनाथ आश्रम में मनाई जाती है, विधवा वर्ग हर वर्ष उसी उल्लास से होली मानता है जैसे समाज के अन्य लोग।

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