॥दोहा॥
विष्णु सुनिए विनयसेवक की चितलाय।
कीरत कुछ वर्णन करं दीजै ज्ञान बताय॥
॥चौपाई॥
नमो विष्णु भगवान खरारी,कष्ट नशावन अखिल बिहारी।
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी,त्रिभुवन फैल रही उजियारी ||1||
सुन्दर रूप मनोहर सूरत,सरल स्वभाव मोहनी मूरत।
तन पर पीताम्बर अति सोहत,बैजन्ती माला मन मोहत ||2||
शंख चक्र कर गदा बिराजे,देखत दैत्य असुर दल भाजे।
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे,काम क्रोध मद लोभ न छाजे ||3||
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन,दनुज असुर दृष्टन दल गंजन।
सख उपजाय कष्ट सब भंजन,दोष मिटाय करत जनसज्जन ||4||
पाप काट भव सिन्धु उतारण,कष्ट नाशकर भक्त उबारण।
करत अनेक रूप प्रभुधारण,केवल आप भक्ति के कारण ||5||
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा,तब तुम रूप राम का धारा।
भार उतार असुर दल मारा,रावण आदिक को संहारा ||6||
आप वाराह रूप बनाया,हरण्याक्ष को मार गिराया।
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया,चौदह रतनन को निकलाया ||7||
अमिलख असुरन द्धन्द मचाया,रूप मोहनी आप दिखाया।
देवन को अमृत पान कराया,असुरन को छवि से बहलाया ||8||
कूर्म रूपधर सिन्धु मझाया,मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया।
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया,भस्मासुर को रूप दिखाया ||9||
वेदन को जब असुर डुबाया,कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया।
मोहित बनकर खलहि नचाया,उसही करसे भस्म कराया ||10||
असुर जलन्धर अति बलदाई,शंकर से उन कीन्ह लडाई।
हार पार शिव सकल बनाई,कीन सतीसे छलखल जाई ||11||
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी,बतलाई सब विपत कहानी।
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी,वृन्दा की सबसुरति भुलानी ||12||
देखत तीन दनुज शैतानी,वृन्दा आय तुम्हें लपटानी।
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी,हना असुर उर शिव शैतानी ||13||
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे,हिरणाकुश आदिक खल मारे।
गणिका और अजामिल तारे,बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ||14||
हरहु सकल संताप हमारे,कृपा करहु हरि सिरजन हारे।
देखहुं मैं निजदरश तुम्हारे,दीन बन्धु भक्तन हितकारे ||15।।
चहत आपका सेवक दर्शन,करहु दया अपनी मधुसूदन।
जानूं नहीं योग्य जब पूजन,होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ||16||
शीलदया सन्तोष सुलक्षण,विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण।
करहुं आपका किस विधि पूजन,कुमति विलोक होत दुख भीषण ||17।।
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण,कौन भांति मैं करहु समर्पण।
सुर मुनि करत सदा सेवकाई,हर्षित रहत परम गति पाई ||18||
दीन दुखिन पर सदा सहाई,निज जन जान लेव अपनाई।
पाप दोष संताप नशाओ,भव बन्धन से मुक्त कराओ ||19||
सुख सम्पति दे सुख उपजाओ,निज चरनन का दास बनाओ।
निगम सदा ये विनय सुनावै,पदै सुनै सोजन सुख पावै ॥20॥
॥ इति विष्णु जी की चालीसा॥